मन्त्र संग्रह





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मन्त्र  


1
वक्रतुण्ड़ महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ।
निर्विघ्नं कुरू मे देव, सर्व कार्येषु सर्वदा
2
कर्पूर गौरम करुणावतारंसंसार सारं भुजगेन्द्र हारं।
सदा वसंतं हृदयार विन्देभवं भवानी सहितं नमामि॥
3
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते
4
ॐ जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा शिवाधात्री स्वाहा स्वधा नमस्तेऽस्तु।
5
शरणागत दीनार्त, परित्राण परायणे |
सर्वस्यर्त्ति हरे देवि, नारायणि नमोस्तु ते ||
6
ॐ सरस्वती मया दृष्टान, वीणा पुस्तक धारिनम
हंस वाहिनी समा युक्ते, विद्या दानं च करो मम्।।
7
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव 
त्वमेव विद्या, द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं ममः देव देवा।।
8
\ भूर्भुवः स्व तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात॥
भावार्थ :- हम तीनों लोकों के उस वरण करने योग्य देवता की 
शक्तियों का ध्यान करते हैंवह परमात्मा हमारी बुद्धि को 
सन्मार्ग में प्रेरित करे।
9
शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्  
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्
10
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहम् दनुजवनकृषानुम् ज्ञानिनांग्रगणयम्
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशम् रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि
                मनोजवं मारुत तुल्यवेगम, जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं। 
                वातात्मजं वानरयूथमुख्यं, श्रीरामदूतं शरणम् प्रपद्ये॥
11
नीलाम्बुज श्यामलकोमलाङ्गं, सीता समारो पित वामभागम।
पाणौ महासायक चारूचापं, नमामि रामं रघुवंशनाथम॥
12
 गजाननं भूतगणादि सेवितं
कपित्थ जम्बूफलसार भक्षितम्
उमासुतं शोक विनाशकारणं
नमामि विघ्नेश्वर पादपङ्कजम्
13
गणानां त्वा गणपतिं हवामहे 
प्रियाणां त्वा प्रियपतिं हवामहे |
निधीनां त्वा निधिपतिं हवामहे 
वसो मम आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम् |
14
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥
15
नमस्ते शारदे देवी, वीणापुस्तकधारिणी
विद्यारंभम् करिष्यामि, प्रसन्ना भव सर्वदा।
16
गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म, तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
अर्थगुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है
गुरु ही साक्षात् परम्  ब्रह्म है; उन सद्गुरु को प्रणाम.
17
सर्वे   भवन्तु   सुखिन:   सर्वे   सन्तु निरामया:
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु: भाग्भवेत्
अर्थसभी सुखी हों, सभी निरोगी हों, सभी को शुभ दर्शन हों और कोई दु: से ग्रसित हो.
18
द्यौ: शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति:पृथिवी शान्तिराप:
शान्तिरोषधय: शान्ति: वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म
शान्ति:सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति:सामा शान्तिरेधि सुशान्तिर्भवतु।
॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:
अर्थस्वर्ग लोक में शान्ति हो, अंतरिक्ष में शान्ति हो, पृथ्वी पर शान्ति हो
जल में शान्ति हो, औषधियां शान्त हों, वनस्पतियां शान्त हो, विश्व के देव 
शान्त हो, ब्रह्मदेव शान्त हों, सर्वत्र शान्ति हो, शान्ति ही शान्त हो
सम्पूर्ण शांति हो, मुझे शान्ति प्राप्त हो, सर्वत्र शुभ शान्ति हो.
॥ॐ शान्ति, शान्ति, शान्ति॥
19
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं कपीश्वर |
यत्पूजितं मया देव! परिपूर्ण तदस्तु मे ||
20
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः।
यत्र तास्तु पूज्यंते तत्र सर्वाफलक्रियाः॥
अर्थजहाँ नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं. जहाँ इनकी पूजा नहीं होती है, वहां सब व्यर्थ है.
21
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते॥
अर्थमूर्ख की अपने घर पूजा होती है
मुखिया की अपने गाँव में पूजा होती है
राजा की अपने देश में पूजा होती है 
विद्वान् की सब जगह पूजा होती है.
22
असतो मा सदगमय तमसो मा ज्योतिर्गमय मृत्योर्मामृतम् गमय
अर्थहमकोअसत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो.
23
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थआपको अपने निर्धारित कर्तव्य का पालन करने का अधिकार है, लेकिन आप कभी कर्म फल की इच्छा से कर्म मत करो
(कर्म फल देने का अधिकार सिर्फ ईश्वर को है).
र्म फल की अपेक्षा से आप कभी कर्म करें
ही आपकी कभी कर्म करने की प्रवृति हो
(आपकी हमेशा कर्म करने 
में प्रवृति हो).” – श्री कृष्ण भगवान (अर्जुन से कहा)
24
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:
अभ्युथानम अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम
अर्थजब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है
तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूँ यानि साकार रूप से 
संसार में प्रकट होता हूँ.
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