वीर हकीकत राय
शाहजहां के शासनकाल में पश्चिमी पंजाब (पाकिस्तान) के प्रसिद्ध शहर सियालकोट के खत्री परिवार में एक बालक ने 1619 को जन्म लिया। बच्चे की श्री माता गोरा देवी और पिता श्री भागवत जी थे। बालक का नाम हकीकत राय रखा गया। 5 वर्ष की आयु में एक विद्वान ब्राह्मण के पास हिंदी, संस्कृत पढ़ने भेजा गया। छोटी आयु में ही अच्छी धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के कारण हिंदुत्व के संस्कार उसमें कूट कूट कर भर गए थे। तत्कालीन प्रथा के अनुसार हकीकत राय का विवाह 19 वर्ष की छोटी आयु में ही बटाला के एक सिख श्री किशन सिंह की पुत्री लक्ष्मी देवी के साथ हो गया। विवाह के बाद पिताजी ने हकीकत राय को फारसी (उस समय की राजभाषा) पढ़ने के लिए मौलवी के पास भेज दिया। वहां और भी बच्चे पढ़ते थे और वे सभी मुसलमान थे।
1 दिन मौलवी कहीं बाहर गया हुआ था, उसकी अनुपस्थिति में शेष बच्चे खेलने कूदने तथा शोर मचाने लगे। हकीकत राय इस खेल में सम्मिलित नहीं हुआ और पढ़ने लगा इस पर सभी लड़के मिलकर उसे तंग करने लगे। उन्होंने हिंदू धर्म की निंदा करना प्रारंभ कर दिया और मां दुर्गा के प्रति अपशब्दों का प्रयोग भी करने लगे। धार्मिक हकीकत अपमान को सहन न कर सका और उत्तेजित होकर उसने भी मुसलमानों के पैगंबर की लड़की बीबी फातिमा के लिए उन्ही शब्दों को दोहराने की चेतावनी दी।
मौलवी के वापस आने पर मुसलमान लड़कों ने हकीकत राय की शिकायत की कि इसने बीबी फातिमा को गाली दी है। मौलवी के पूछने पर हकीकत ने निर्भयता से सारी बात सच-सच बता दी और कहा कि इन लड़कों ने तो उनकी देवी मां दुर्गा को गालियां दी थी। किंतु मौलवी ने उसकी सभी बातें अनसुनी कर उसको थप्पड़ और लात घुसे मार कर बेहोश कर दिया। होश में आने पर मौलवी हकीकत राय को काजी के पास ले गया।
काजी ने हकीकत से कहा तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है। इसका एक ही प्रायश्चित है कि तुम इस्लाम स्वीकार कर मुसलमान हो जाओ नहीं तो बीबी फातिमा को गाली देने के अपराध में तुम्हारा सिर काट दिया जाएगा। हकीकत ने मुस्कुराकर कहा कि मैं अपने प्राणों से प्यारे हिंदू धर्म को तिलांजलि नहीं दे सकता। मौत का भय दिखाकर आप मुझे विचलित नहीं कर सकते क्योंकि हकीकत को ही तुम्हारी तलवार काट सकती है, आत्मा को नहीं। मेरा धर्म कहता है कि आत्मा अमर है। एक बालक के मुख से ज्ञान और स्वाभिमान की बातें सुनकर काजी आश्चर्यचकित रह गया।
यदि तुम मुसलमान हो जाओ तो तुमको इतना धन दिया जाएगा की संपूर्ण जीवन भोग विलास में व्यतीत करोगे। काजी ने उसे लालच देना चाहा। मैं मुसलमान बन सकता हूं यदि आप मुझे विश्वास दिला दें कि मुसलमान बन जाने से मैं अमर हो जाऊंगा। यह कैसे हो सकता है? जो इस संसार में आया है वह एक ना एक दिन तो मरेगा ही - काजी ने कहा। मरना ही है तो उससे कैसा डर। मुसलमान बन जाने पर भी मैं अमर नहीं हो सकता तो फिर मुसलमान बनने से क्या फायदा। अंत में अपने को पराजित अनुभव करते हुए काजी ने कुरान की शरीयत का नाम लेकर हकीकत को कोड़े लगाए और हथकड़ियों से जकड़ कर कारागार में डाल दिया।
इस समाचार को सुनकर माता पिता काजी के पास आए और काजी से क्षमा मांगते हुए कहा यह बच्चा है, गलती से इसके मुंह से अपशब्द निकल गए होंगे। इस पर भी काजी को दया नहीं आई और उसने पूर्व दी सजा को बनाए रखा। माता ने ममत्व के वशीभूत होकर हकीकत से क्षमा मांगने एवं मुसलमान बन जाने को कहा। इस पर हकीकत ने माता से कहा- माता तूने ही तो मुझको प्राचीन गाथाएं सुना कर धर्म के मर्म को समझाया था। मैं इस पवित्र कार्य से कदापि पीछे नहीं हटूंगा। धर्म के लिए एक प्राण तो क्या यदि मुझे हजार प्राण भी न्योछावर करने पड़े तो मैं प्रसन्नता-पूर्वक तैयार हूं। यह पाठ तुम्हारी गोदी में ही बैठकर तो सीखा है।
मां की आंखों में आंसू आ गए वह निरुत्तर थी। नगर के सभी हिंदू एकत्रित होकर नगर प्रमुख अमीर बेग के पास गए और हकीकत को बच्चा जानकर क्षमा करने को कहा। अमीर बेग ने स्वयं निर्णय न देकर मुकदमा लाहौर के मुख्य काजी के पास भेज दिया। उन दिनों दिल्ली में बादशाह मोहम्मद शाह का राज्य था। उस सुबह का सूबेदार खान बहादुर जकारिया खान था। सभी जगह मुस्लिम धर्मांधता का बोलबाला था। मुकदमा लाहौर के मुख्य काजी के न्यायालय में प्रस्तुत हुआ, लेकिन परिणाम वही इस्लाम स्वीकार करो या मृत्युदंड।
हकीकत ने काजी को कहा प्रभु ने मुझे हिंदू घर में जन्म दिया है और आपको मुस्लिम घर में इसलिए आपका मुझे इस्लाम स्वीकार करने के लिए बातें करना ईश्वर के कार्य में हस्तक्षेप है। भूलिए मत जो कोई ईश्वर के कार्य में हस्तक्षेप करता है, काफिर वही है मैं नहीं। हकीकत की पत्नी भी न्यायालय में उपस्थित थी उसने भी मुसलमान बन प्राणों को बचाने की प्रार्थना की, तो हकीकत राय ने कहा तुम्हारा मस्तक तो गर्व से ऊंचा होना चाहिए कि तुम्हारा पति अपने धर्म पर अडिग रहा है।
अंत में पूर्व दंड के अनुसार एक खुले मैदान में हजारों महिला पुरुषों की भीड़ के बीच सन 1734 बसंत पंचमी के दिन काजी के आदेश से जल्लाद ने उस वीर बालक का तलवार से शीश काट दिया। लाहौर से लगभग 5 किलोमीटर दूर रावी नदी के तट पर खोजें शाह गांव के निकट चंदन की चिता बनाकर वीर बालक का अंतिम संस्कार किया गया। बाद में वहां समाधि बनाई गई। भारत विभाजन के बाद समाधि स्थल बना कर वहां प्रतिवर्ष बसंत पंचमी के दिन मेला लगता है।
बलिदानी वीर हकीकत की पत्नी बाद में अपने पिता के घर बटाला आ गई और माता-पिता को समझाने के बाद बटाला में ही आत्मोत्सर्ग किया। आज भी प्रतिवर्ष वहां पर मेला लगता है। वीर हकीकत का बलिदान अलौकिक और अद्वितीय है। वीर हकीकत ने हंसते-हंसते धर्म के लिए अपना बलिदान देकर समाज में नवचेतना का संचार किया।
*जय श्री राम*
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